भगत सिंह तेरे अरमानों को मंज़िल तक पहुंचायेंगे!
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जब भी हम आजादी, हक और समतामूलक भारत की बात करते हैं तो हमें भगत सिंह याद आते हैं। हमारे स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों की, हमारे पूवर्जों की आकांक्षाओं की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति अगर किसी में मिलती हैं तो वे हैं शहीद-ए-आज़म भगत सिंह। उन्होंने हमें सावधान किया था कि आजादी के नाम पर गोरे साहबों के बदले भूरे साहबों का राज आ सकता है और वे इसके विरोधी थे। वे मजदूर-किसान राज की बात करते थे। स्पष्टतः एक ऐसा भारत एक समतामूलक समाज ही हो सकता है क्योंकि जब शोषित-उत्पीड़ित मजदूर-किसान राज करेंगे तो वे सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक गैरबराबरी के खिलाफ ही काम करेंगे। वे पूंजीवाद नहीं समाजवाद के लिए काम करेंगे। भगत सिंह के दो नारे जो प्रसिद्ध हुए वे थे इंकलाब ज़िन्दाबाद और समाजवाद ज़िन्दाबाद। यानी वे समाज बदलने के लिए क्रांति की बात करते थे और एक नया समतामूलक समाज बनाने की बात करते थे। आज जब भी हम उनको याद करते हैं तो इन्हीं दो पैमानों पर अपने समाज को तौलते हैं और एक नये समाज की कल्पना करते हैं जो शोषणविहीन हो और सभी की समृद्धि के लिए काम करता हो।
इन दो पैमानों पर हम यदि देखें तो हम पाते हैं कि भगत सिंह के सपनों का भारत आज दूर की कौड़ी लगती है। आर्थिक गैरबराबरी के आंकड़ों को ही लें। यह दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। आज भारत के सबसे ज्यादा आय वाले 98 व्यक्तियों के पास उतना धन है जितना कि निचले पायदान के 55.2 करोड़ लोगों के पास? सबसे गरीब मेहनतकशों से बने निचले पायदान के 50 प्रतिशत के पास कुल धन का मात्र 3 प्रतिशत है। पिछले दो दशकों में इस तबके ने अपना आधा धन गंवा दिया है और वह कर्ज में डूबा हुआ है। कैसी विकट स्थिति है! विश्व में भूख की स्थिति नापने वाले ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत निम्नतर पायदानों में से एक 107वें पायदान पर है जो अत्यंत खराब स्थिति को दिखाता है। भारत अपने पड़ोसियों से भी पीछे है। क्या ऐसी स्थिति हमें मान्य है? क्या मेहनतकश किसानों के बच्चे भूखे मरें? हम अपनी अगली पीढ़ी को क्या दे रहे हैं? ये परिस्थितियां हमारे सामने चुनौती के रूप में खड़ी हैं और मुकम्मल संघर्ष के लिए आह्वान करती हैं। हम दम्भ भरते हैं कि भारत विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है और दूसरी ओर देश की बहुसंख्यक जनता 5 किलो अनाज के मुफ्त राशन को मोहताज है! क्या बढ़ती गैरबराबरी का इसमें हाथ नहीं है? अधिकांश जनता मेहनतकश हैं -- मजदूर और किसान हैं। वे ही अन्न उगायें और उनका ही अनाज उन्हें भीख में मिले! कैसी विडम्बना है! 2019 के एनएसएसओ के आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर छोटे व गरीब किसानोें को मजदूरी कर जीवनयापन करना पड़ता है। ऐसे में रोजगार की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। आज बेरोजगारी की मार सबसे ज्यादा छात्र-नौजवान झेल रहे हैं।
पिछले साल मध्य प्रदेश के विधान सभा में जवाब देते हुए तत्कालीन युवा व खेल मंत्री ने आधिकारिक रूप से बताया कि मध्य प्रदेश में 39 लाख बेरोजगार हैं जिनमें से सरकार ने विगत 3 सालों में मात्र 21 युवाओं को नौकरी दी है। कितनी भयानक स्थिति है। जो मेहनत कर भारत को समृद्ध बना सकते थे वे बेकार कर दिये जा रहे हैं। बेरोजगारी का आलम बढ़ता जा रहा है। ‘‘विकास-विकास’’ की चीख के पीछे बेरोजगारों का आर्तनाद छुप जा रहा है। एक तरफ कृषि विकास के बावजूद किसानी से किसानों का जीवनयापन नहीं हो पा रहा है। दूसरी ओर उद्योग और अधिरचना क्षेत्र में विकास से रोजगार नहीं बढ़ रहे हैं। अध्ययनों के अनुसार ऊंची विकास दरों के बावजूद कम्पनियों द्वारा नियोजित रोजगार में कमी आती जा रही है। मूलभूत उद्योगों में उच्च विकास दर के बावजूद रोजगार वृद्धि दर में गिरावट आई है। मशीनरी उत्पादन और पॉवर के क्षेत्र में रोजगार वृद्धि ऋणात्मक रही है और अधिरचना के क्षेत्र में मात्र 0.4 प्रतिशत। ये अध्ययन 2014-15 से लेकर 2018-19 तक के कालखंड के आंकड़ों पर आधरित थे। रिजर्व बैंक के अध्ययन में भी यही पाया गया कि एक प्रतिशत वृद्धि दर के साथ रोजगार में होने वाले प्रतिशत इजाफे में कमी आई है। इस तरह विकास और रोजगार की स्थिति में मेल नहीं है और सरकार इस ओर सोचती भी नहीं हैं।
ऐसे में मजदूरों को रोजगार के लिए भटकना पड़ता है और उनकी सेवा शर्तें खराब होती जा रही हैं। सरकार की नीतियां जिसमें निजीकरण और आउटसोर्सिंग व डाउनसाइजिंग शामिल हैं मजदूरी को नीचे ले जा रही हैं। वे मालिक पूंजीपतियों की मनमानी का शिकार हो रहे हैं। सरकार ने पुराने कानूनों को रद्द करके पूंजीपतियों व नियोजकों के पक्ष में लेबर कोड बना दिया है जिससे मजदूर प्रायः अधिकारविहीन स्थिति में डाल दिये गये हैं। बेरोजगारी व महंगाई की मार तो ऐसी है कि आंकड़ों के अनुसार पिछले साल आत्महत्या करने वालों में दिहाड़ी मजदूरों की संख्या सबसे ज्यादा थी। प्रधान मंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति की रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि मनरेगा के तर्ज पर शहरी रोजगार गारंटी योजना लागू होना अत्यंत जरूरी है। यह स्थिति की भयावहता को ही देखते हुए है लेकिन सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती।
छात्र पढ़-लिख कर भी बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं। युवा आबादी के बीच बेरोजगारी सबसे ज्यादा है। सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार युवाओं के बीच की बेरोजगारी दर 45 प्रतिशत से ज्यादा है। दूसरी ओर गुणवत्तापूर्ण और उच्च शिक्षा से मेहनतकश तबकों से आने वाले छात्रों को बाहर किया जा रहा है। लगातार महंगी होती शिक्षा के चलते गरीब व निम्न आय वाले घरों के मेधावी बच्चे मेडिकल, इंजीनियरिंग व अन्य उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिला नहीं ले पाते। सरकार की उदारीकरण और निजीकरण की नीतियां अमीरों के लिए शिक्षा व्यवस्था को प्रश्रय देती हैं।
ऐसी स्थिति में हमें शहीद भगत सिंह के पैमानों पर देश की स्थिति को तौलना पड़ेगा। क्या इसके संसाधन आम आदमी के लिए, मेहनतकशों के लिए खर्च हो रहे हैं? क्या गैर-बराबरी कम हो रही है? क्या सभी को एक गरिमामयी जिन्दगी मिल रही है? क्या हम युवाओं को अवसाद में धकेल रहे हैं या एक कर्मठ पीढ़ी का निर्माण कर रहे हैं? क्या आदमी आज भी रोटी का मोहताज है? इन सबका जवाब हमें सोचने के लिए मजबूर करते हैं। आज प्रचुरता में अभाव की स्थिति है। और हो भी क्यों न? जब मुट्ठीभर पूंजीपतियों के हाथों में देश का अपार धन संकेन्द्रित हो रहा हो, जब राष्ट्रीय आय का बड़ा से बड़ा भाग उन तक ही केवल पहुंच रहा हो तो स्थिति कैसे सुधर सकती है? आज कमी से हम नहीं जूझ रहे हैं बल्कि प्रचुरता में कमी से जूझ रहे हैं। इसीलिए मजदूरों, मेहनत करनेवाले किसानों, छात्रों-नौजवानों को इस स्थिति से पार पाने के लिए भगत सिंह के रास्ते को चुनना होगा। उन्हें अपना भविष्य खुद गढ़ना होगा। नारा फिर वही होगा जिसे शहीद-ए-आज़म ने बुलंद किया था -- समाजवाद एक ही रास्ता और इसके लिए इंकलाब? तो आइए, इसी के नाम हम इस साल भगत सिंह के शहादत दिवस को मनायें, संकल्प लें और आगे बढ़ें।
इंकलाब ज़िन्दाबाद? भावी कल हमारा होगा!!